अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो,--------

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं।
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!















fight for Eunuchs

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third gender equality
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शबे क़द्र जैसी वो रातें।

2:32 AM / Posted by huda / comments (0)


शबे क़द्र जैसी वो रातें।
इन्ना अनज़लना लै-लतुल क़द्र। कुर्आन शरीफ के तीसवें पारे की सत्तानवीं सूरत है। शबे क़द्र की रात अल्लाह तआला फरमाता है कि "है कोई अमान पाने वाला, है कोई निजात पाने वाला, है कोई मेरा चाहने वाला" अल्लाह तआला फरिश्तों का मार्फत यह संदेश पूरी दुनिया को पहुँचाता है। शबे बारात की रात इबादत की रात है। लोग अल्लाह की बारगाह में अपने गुनाहों की तौबा करते हैं और अल्लाह से अपनी जानी-अनजानी ग़लतियों की म'आफी माँगते हैं। हदीस शरीफ है कि 'अरब में बनी कल्ब नाम का एक क़बीला था। यह कबीला बकरियाँ पालता था। आज की रात इबादत करने वाले और अपने गुनाहों से तौबा करने वाले को अल्लाह तआला बकरियों का बालों के बराबर बख्शिश देगा।' अल्लाह रब्बुल इज्ज़त की बारगाह में शबे बारात की रात हर इंसान की ऑडिट रिपोर्ट तैयार होती है। जिसमें उनके भले-बुरे कामों का लेखा-जोखा होता है। आज की रात यह तय होता है कि इस साल किस-किसका अल्लाह के घर से बुलावा आयेगा और किस-किसको ज़िन्दगी मिलनी है। यानि मौत के ख़ौफ के साथ लोग अल्लाह की बारगाह में अपनी निजात की अर्ज़ी लगाते हैं। तभी तो मुहावरे में अक्सर कहा जाता है कि आज की रात शबे क़द्र की रात है।
दंगे की जद में आये किसी भी शहर की हर रात शबे क़द्र जैसी होती है। अचानक मोबाइल की घन्टी बजती है कि पूरा शहर जल रहा है। मारकाट मची है। लोगों को घरों से निकाल-निकालकर मारा-काटा जा रहा है। हिन्दु और मुसलमान अपने-अपने अपमान का बदला ले रहे हैं। हालात यह हैं कि शायद अब शहर में कोई भी ज़िन्दा न बचे। पूरी फिज़ा दो हिस्सों में बँट चुकी है। रात की काली गहराई में कहीं हर-हर महादेव तो कहीं नारा ए तकबीर। ऐसा लगता था कि मानों हर चीज़ दो भागों में बंट गयी। फोन की घन्टी भी हिन्दु और मुसलमान हो गयी थीं। ऐसा लगता था कि हिन्दु की रात अलग और मुसलमान की रात अलग है। ख्वाब बंट चुके थे। रिश्ते बंट चुके थे। जज्वात बंट चुके थे। मोहब्बतें बंट चुकी थीं। ग़र्ज़ यह कि रोटी-चावल, आटा-दाल, सब्जी़-फल सभी को दो हिस्सों में बाँट दिया गया था। यहाँ तक कि चुन्ना मियाँ के मन्दिर में चुन्ना मियाँ अलग और मन्दिर अलग हो गया था। अजीब क़ैफियत के साथ ज़ेहन पर जबरदस्त डर हावी हो रहा था। बुज़ुर्गों के मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा कि बँटवारे के वक्त भी ऐसे ही हालात थे। लग रहा था कि आज की रात जिन्ना साहब की ख़ताओं का सिला हिन्दुस्तान में रहने वाले हर मुसलमान को मिलने वाला है और गुजरात की सज़ा हिन्दुओं को। उन हाथों में भी नंगी तलवारें थीं जो हाथ हमेशा कौमी एकता का झन्डा उठाते हैं।
हर कोई आमादा था बस हिन्दु और मुसलमान हो जाने पर। इस बात से बेख़बर कि आने वाली नस्लों को क्या मुँह दिखाया जाएगा। चारों तरफ से शोर और धार्मिक नारों के अलावा कोई और आवाज़ नहीं आ रही थी। मस्जिदों से ऐलान होने लगे और मन्दिरों में घन्टे बजने लगे। धर्म के तथाकथित ठेकेदार लोगों से घरों में रहने की अपील कर रहे थे। कोई कुछ नहीं जानता था, क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, कौन करवा रहा है। शायद पहली बार मैंने अपने पड़ोसी बच्चे को बिना दूध के सोते देखा। दूध और पानी भी शायद हिन्दु और मुसलमान हो गये थे। गाय और भैंसे भी दो खेमों में बँट गयी थीं। हिन्दु जानवर अलग हो गये और मुसलिम जानवर अलग। मुसलिम मोहल्ले में रहने वाले बन्दर मुसलिम और हिन्दु मोहल्ले में रहने वाले बन्दर भी हिन्दु हो गये थे। चारों तरफ से ख़बरों का सिलसिला जारी था। बात-बात पर जायज़ा लिया जा रहा था। तालिब चचा अचानक बोले आज रात कुछ संघ वाले पड़ोस के वैद्य जी के घर में छिपकर बैठ गये हैं, आज रात मोहल्ले में हमला होना है। कहीं गुजरात न बन जाए। सभी जागते रहो, अल्लाह से सलामती की दुआ माँगते रहो। बड़े-बड़े फर्जी़ सैक्युलर अपनी कैंचुली बदल चुके थे। जो मोहल्ला सबसे ज्यादा संगीनों के साये में था, वहीं आगज़नी और लूट सबसे ज्यादा हुई। दहशत लोगों के चेहरे पर साफ दिख रही थी। शायद मौत का ख़ौफ या फिर कुछ और। ऐ खु़दा शबे बारात की रात उन लोगों को म'आफ करना, जिन लोगों ने शहर की रातों को शबे क़द्र की रात बनाया।
या अल्लाह म'आफ करने देना उन लोगों को, जो अपने घरों से पेट्रोल दे रहे थे शहर जलाने को। या अल्लाह म'आफ करने देना फहीम को जो माथे पर तिलक लगाकर हनीफ की दुकान काट रहा था। या अल्लाह म'आफ करने देना राजीव को, जो जालीदार टोपी लगाकर सुनील की दुकान लूट रहा था। या अल्लाह म'आफ करने देना उन ठेकेदारों को जो एयरकंडीशन्ड कमरों में बैठकर क़ौम और देश का भविष्य तय करते हैं। या अल्लाह म'आफ करने देना उन दोगले नेताओं को, जिन्होंने शहर के मुँह पर कालिख पोत दी। या अल्लाह म'आफ करने देना उन लोगों को, जिन्होंने जज्बाती नारों के सिवा कुछ न दिया, कुछ न किया। या रब्बुल आलमीन तू आलम का रब है, सब पर रहम करने वाला है, म'आफ कर दे उन लोगों को भी, जिन्होंने घरों के चूल्हे उजाड़ दिये। या अल्लाह ये दुआ है मेरी कि फिर कभी ऐसी रातें न देखनी पड़े कि जिसमें ख्वाब भी हिन्दु और मुसलमान हो जाएं।

12:13 PM / Posted by huda / comments (0)

एक आशा ---
एक उम्मीद ---





रानी का डंडा

2:58 AM / Posted by huda / comments (0)




बचपन से आज तक डंडे के अनेकों प्रकार सुने। 'अम्मा का डंडा', 'अब्बा का
डंडा', स्कूल गये तो 'मास्टर साहब का डंडा'। बड़े हुए तो पता चला इन सबसे
ऊपर 'पुलिस का डंडा'। पुलिस का डंडा इतिहास का अब तक सबसे 'महान डंडा'
समझा जाता था। और इस पुलिसिये डंडे को अपने उच्च व्यवहार के लिये महानतम
कहलाने में फख्र भी महसूस होता था। हाँ, यह ज़रूर है कि थोड़े दिनों इस
पुलिसिया डंडे के वर्चस्व को चुनौती देने वाला डंडा पैदा ज़रूर हुआ, जो
अपने मालिक के साथ इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गया। भद्रजनों! इस
डंडे को 'गाँधी का डंडा' कहते थे। जब तक गाँधी का डंडा रहा तब तक डंडा
अपनी वास्तविक कार्यशैली ही भूल गया था। अहिंसा का पाठ पढ़ाने लगा था। यह
तो वही मिसाल हुई कि शेर से कहो मियाँ घास खा लो। हाँ, अभी कुछ दिनों से
ज़रूर एक डंडे ने लोगों को बिलखने पर मजबूर कर दिया है। हालत यह है कि घर
की ग्रहणियाँ भी सड़क पर उतरकर इस डंडे का विरोध कर रही हैं। वह है
मँहगाई रूपी 'सरकारी डंडा'। मित्रो! अभी हम लोग डंडे के प्रकार ही जान
पाये और कुछ हद तक कार्यशैली भी। अभी पिक्चर खत्म नहीं हुई है भाई। यदि
गाँधी जी के डंडे को हटाकर बात करें तो सम्भवतः सभी डंडे कुशल कारीगर के
रूप में अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। गर्ज़ यह कि सभी लोग डंडे से किसी
न किसी रूप में परेशान हैं और इससे किसी भी सूरत में निजात पाने का
रास्ता ढूँढ रहे हैं। डंडे की व्याख्या करने के बाद मैंने सोचा कि मूल
बात पर आऊँगा। परन्तु विचार कर गया कि बिल्कुल साफ-साफ लिखूँगा और
देखूँगा कि कितना ईमानदाराना रवैया अख्तियार कर पाता हूँ लिखने के लिये।
दोस्तो! हैरत की बात यह है कि आज़ादी के दौर में जिस डंडे को देखकर लोगो
की कंपकपी छूट जाती थी, उसी डंडे को पिछले कई दिनों से एक देश से दूसरे
देश, एक शहर से दूसरे शहर सरकारी निगरानी में हाईटैक प्रणाली द्वारा
घुमाया जा रहा है। और लगभग सत्तर देशों से ज्यादा देशों का सफर तय करके
यह डंडा बाघा बॉर्डर लाँघकर हमारे देश में भी आ पहुँचा है। जिसको पकड़ने
के लिये हर ख़ास और आम शहरी परेशान है। आप जानना चाहेंगे इस डंडे के बारे
में। कोई साधारण डंडा नहीं है मियाँ, इसे रानी का डंडा कहते हैं। शाब्दिक
अर्थों में देखा जाए तो क्वींस वैटन का मतलब भी रानी का डंडा ही हुआ। तो
हूज़ूर हम बात कर रहे हैं कि क्वींस वैटन यानि रानी के डंडे की। विगत
दिनों यह रानी का डंडा हमारे शहर बरेली में भी था। स्पोर्ट्स स्टेडियम
बरेली में ज़िला प्रशासन द्वारा भव्य आयोजन किया गया था। इस डंडे की
इज्जत-अफज़ाई के लिये स्टेडियम के बाहर राजमा-चावल बेच रहे सुखीलाल बोल
पड़े 'हमऊ न मिलिहै का ई डंडा, हमऊ भी लेके भागन चाहीं'। अब बेचारे ग़रीब
को कौन बताये कि जिस गाँधी के डंडे ने इस रानी के डंडे को देश से हंकाला
था और उस सुखीलाल जैसे हज़ारों लाखों लोगों ने गाँधी के डंडे को मज़बूती
से थामकर रानी के इसी डंडे को ज़मीदोज़ कर बैण्ड बजायी थी। यह वो ही रानी
का डंडा है भाई। ख़ैर! मामला क्वींस वैटन का है, इसलिये स्टेटस सिम्बल बन
गया था बरेलीवालों के लिये इस डंडे को पकड़ना। हर कोई आमादा था इस 'डंडा
पकड़' अभियान में अपना नाम दर्ज कराने को। बेचारा प्रशासन घोर संकट में
था कि क्या किया जाए। प्रशासन का पशोपेश में पड़ना लाज़िमी था क्योंकि
इंतिहा तो तब हो गयी कि इस 'डंडा पकड़ अभियान' के लिये लखनऊ से दबाव आने
लगा था कि अमुख व्यक्ति हमारे क़रीबी हैं कृप्या इनको भी डंडा पकड़वा
दीजिये। इनको भी दौड़ना है। और उन सभी को दौड़ना है कि जिनका दौड़ से
दूर-दूर तक कोई नाता, कोई वास्ता नहीं है। पूरा शहर उमड़ पड़ा था बस। हर
पार्टी के जनप्रतिनिधि विधायक, साँसद, मंत्री पूर्व मंत्री, बड़े नेता,
छुटभैये नेता यानि सारे माननीये मौजूद थे। यदि कुछ एक को छोड़ दें तो कोई
यह भी न बता पाए कि राष्ट्रमण्डल खेल क्या होते हैं और यह कहाँ हो रहे
हैं। और बेचारे मीडियाकर्मियों का तो सबसे बुरा हाल था। अपनी-अपनी नौकरी
बचाने को सिर-पैर एक किये हुए थे। चूँकि डंडा बरेली में था और स्टेटस
सिम्बल बन ही चुका था। तो सबको पकड़ना ही था। इन माननीयों से कोई सुखलाल
यह पूछे कि साल में अगर बारह बार भी सारे माननीये स्टेडियम में ऐसे ही
जुट जाएं तो इंडोर बैडमिंटन हॉल को कबूतर गंदा न करें। कोच अपनी
ज़िम्मेदारी महसूस करें। स्वीमिंग पूल तालाब तालाब न बनें। खिलाड़ी हाथ
में मोबाइल लेकर न दौड़ें। शाम सात बजे के बात मैदान के कोने में ढक्कन न
खुले। खिलाड़ी अन्धेरा होने का इंतिज़ार न करें। खेल का मक़सद सिर्फ
रेलवे की नौकरी न हो। स्टेडियम के पीछे की घास साफ हो जाए, जहाँ अँधेरे
में महिला खिलाड़ी अपने साथियों के साथ भी गुज़रना पसंद नहीं करती। फर्जी
सियासत बन्द हो जाए। कोचों में एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ बन्द हो
जाए। कुल मिलाकर सारे ख़लीफा बाहर हो जाएं और खेल सिर्फ खेल हो। परन्तु
ऐसा सोचना माननीयों की शान के खिलाफ है। उनको तो आज यह तय करना था कि
कौन-से कुर्ते में 'विलायती लट्ठ' अच्छा लगेगा। इसी बीच मुलाक़ात हो जाती
है एक मशहूर और माअरूफ हस्ती से। काश हम भी सफेद पैन्ट-शर्ट पहनकर सफेद
बाल रखते और झटके से बाल झटककर कहते हाय मेरी बरेली को क्या हो गया। और
कोई दोस्त अपना रूमाल निकालकर आँसू पोछता और कल सारे अख़बार की सुर्खियाँ
बन जाते। ख़ैर इनता अच्छा नसीब हमारा कहाँ है। बड़े-बड़े जादूगरों और
बहरूपियों को देखकर 'हरिशंकर परिसाई' की 'निठल्ले की डायरी' याद आ गयी।
कबीरा इस संसार में भांति-भांति के लोग, कुछ तो............। इस बीच एक
जनप्रतिनिधि से मुलाकात हो गयी। सत्ताधारी पार्टी के प्रभावशाली नेता
हैं, उनके लिये इससे अच्छा मौक़ा और कहाँ मिलता। लगे सबसे हाथ जोड़ने और
ख़ैरियत पूछने। एक मीडिया बन्धु पूँछ बैठे भाई साहब आप यहाँ कैसे। क्या
आप भी दौड़ेंगे। नेता जी बोले हमें तो साथ के लोगों ने बताया कि स्टेडियम
में कोई खेल चल रहा है भागने का और किसी ने कहा पार्टी का कार्यक्रम लगा
है। लो हम भी आ गये। चलो इसी बहाने मुलाकात भी हो गयी सभी से। इसी बीच
कुछ प्रशासनिक अधिकारियों से भी गु्फ्तगु हुई। ऐसा लग रहा था कि मतपत्र
की गिनती का काम चल रहा था। माथे पर इतने बल और चेहरे पर इतनी टेंशन तो
कभी बरेली में लगे कर्फ्यू में भी नहीं दिखायी दी थी। बस, यहाँ से किसी
तरह से यह डंडा निकल जाए ख़ैरियत के साथ। इसी क़वायद में पिछले एक हफ्ते
से लगे है स्टेडियम में पसीना बहाने में। आला अधिकारी से लेकर जूनियर
अधिकारी तक सभी सकुशल इस डंडे को ख़ैरियत के साथ बाहर निकालने में जी-जान
एक किये हुए हैँ। बातें तो मैंने ख़ूब कर लीं बड़ी-बड़ी। लेकिन यह नहीं
समझ पाया कि मैं क्यों इतना व्याकुल था इस डंडे को पकड़ने के लिये। शायद
मानसिक रूप से तैयार होकर भी गया था और जानता भी था डंडे का इतिहास। फिर
भी इतनी उत्सुक्ता कि बस......एक बार हाथ में आ जाए। पता नही क्यों। शायद
कई बरसों से दूसरे के डंडे और झंडे की जय-जयकार करना हमारा शगल हो गया
है।
शाम साढ़े बजे बच्चों द्वारा ग्राउंड के किनारे लगी ख़ूबसूरत झंडियों को
उखड़ते देख सोच रहा था कि 'हमारा डंडा' यानि 'गाँधी का डंडा' यानि 'गाँधी
वैटन' कब लेंगे इतनी बेक़रारी से हाथ में और कब पूरी दुनिया 'गाँधी वैटन'
की जय-जयकार करेगी। जिसने अपनी ताक़त का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया था।

भवदीय
डॉ० एस० ई० हुदा
स्पोर्ट्स इंजुरी स्पसिलिस्ट
चीफ मेडिकल सुप्रिंटेंडेंट
सिद्धि विनायक हॉस्पिटल, बरेली
मोबाइल - 09837357723