अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो,--------

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं।
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!















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फज्र की नमाज़ पर महबूब चचा की चाय

7:30 AM / Posted by huda /


पुराने शहर की तंग गलियों के बीच बसा मोहल्ला रोहिली टोला। रूहेला नवाबों के नाम पर रखा गया नाम। जिसकी शान बढ़ाता हुआ बीचो-बीच बना पुराना हवेली नुमा मकान 'बब्बन साहब का फाटक' जो इस मोहल्ले की शान हुआ करता था। नवाबों की नवाबियत की तरह जिसकी भी दीवारें अब दरकने लगी हैं और रही-सही कसर पूरी कर दी कुछ भू-माफियाओं ने, जिनकी पैनी निगाहें इस हवेली नुमा मकान की सैकड़ों वर्ष पुरानी लकड़ी से लेकर फाटक के लोहे के गेट तक पर टिकी हैं। नये पुराने इस दौर के बीच की कड़ी हैं महबूब चचा। पुरानी ज़मीन जायदाद के साथ-साथ सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान भी चलाते हैं। अपने दौर के चिकन-चंगेजी से लेकर आज के दौर के चाऊमीन तक के किस्से हैं उनके पास। चचा के पास बैठना आसान नहीं है। मोहल्ले के हर एक बुज़ुर्ग और बच्चों को तालीम का लम्बा पाठ पढ़ाते हैं और सर-सय्यद के क़िस्से तो ऐसे सुनाते हैं जैसे ए०एम०यू० इन्होंने खड़े होकर बनवाई हो। मोहल्ले के ज्यादातर लोगों के बच्चे ज़री का काम करते हैं और कुछ एक मकान धोबियों के भी हैं मोहल्ले में। चचा का कहना है कि सालो तुमसे अच्छे तो धोबी हैं, कम से कम साफ कपड़े तो पहनाते हैं प्रेस करते हुए, तुम लोग तो न क़ल्ब से साफ हो और न ही दिमाग़ से। पढ़ाई-लिखाई तो तुम लोगों से होने से रही। कम से कम साफ-सुधरी बातें ही कर लिया करो। अबे - डॉक्टर, मास्टर न बनाओ न सही, कम से कम स्कूल तो भेजो बच्चों को। साफ-दिल चचा की साफ-गोई को हर कोई जानता है। चचा कहते हैं - अबे अगर मर जाऊँ तो जनाज़े में साफ-सुधरे कपड़े पहनकर आना। और सुनो पहले धोबी मेरा जनाज़ा उठाएंगे। और हाँ. जनाज़े के पीछे साफ-साफ क़लमा पढ़ना। कहीं बातें मत करने लग जाना कि तीजे में कोरमा बनेगा या बिरयानी पर हाथ साफ होगा। धोबियों में भी बड़ी मक़बूलियत है चचा की। साठ साल तक शादी नहीं की चचा ने। मोहल्ले के कुछ हमउम्र लोगों ने फैसला किया कि चचा की शादी करा दी जाए। पहुँच गये सब इशां (रात की नमाज़) के बाद चचा के घर फरियाद लेकर। चचा नमाज़ियों को देखते ही बोले - आ गये शैतान फिर बरगलाने। अबे, लीचड़ो-ज़लीलो तुम्हीं लोगों की वजह से नहीं जाता हूँ मसजिद में नमाज़ पढ़ने। ये भी तो गवारा नहीं है तुम लोगों को। मेरे पीछे कहते हो चचा की कंट्रोल की दुकान हिन्दु मोहल्ले में है। चचा जागरण में जाते हैं तिलक लगवाते हैं। लाला बनारसी चचा के जिगरी दोस्त हैं। होली की गुजियेँ खाते हैं। और पता नहीं क्या-क्या शिर्क करते हैं। तौबा-तौबा, अबे सालो सब जानता हूँ। मेरे पीछे में घर की रखवाली के बहाने आते हो। शाहिद (चचा का नौकर) से चाबी लेकर ख़ूब मज़े ले-लेकर खूब गुजियें खाते हो। और कम्बख्तो पानी भी मेरे फ्रिज का पीते हो। अब जब चचा का फ्रिज है तो क्या ज़रूरत मोहल्ले में दूसर फ्रिज की। चचा बोले.......कम्बख्तो क्या काम है। बताओ जल्दी.....चंदे के लिये आये होगे। मसजिद की पानी की टंकी या लाइट ख़राब हो गयी होगी। या लाउडस्पीकर का मुँह बन्दरों ने फिर मोड़ दिया होगा हिन्दु मोहल्ले की तरफ। अबे इतने चंदे से तो मोहल्ले के दो-चार लौंडे - वकील/डॉक्टर बन जाते। बरसों से चन्दा कर रहे हैं मसजिद की लाइट भी ठीक नहीं करा पाए। बिल दोगे नहीं, लाइट कट गयी तो सरकार ज्यादती कर रही है मुसलमानों पर। मर्ज़ी न चली तो इस्लाम ख़तरे में। सालो तुम लोगों ने तो नास मार रखा है। मर जाऊँगा तो सारी जायदाद घऱ के पीछे सुनार हिन्दुओं को देकर जाऊँगा, जो कम से कम एक प्याली चाय तो पूँछ लेते हैं। मसजिद की चंदा कमेटी के हेड मिर्ज़ा जी ने डरते हुए बड़ी दबी ज़बान में कहा - वो, महबूब भाई ऐसा है कि हम सब चाहते हैं कि आपकी शादी हो जाए तो अच्छा रहेगा। और आख़िर कब तक ऐसे ज़िन्दगी कटेगी अकेले। एक न एक दिन अल्लाह को मुँह दिखाना ही है। चचा तपाक से बोले....क्यूँ बे.... क्या अल्लाह कुँवारों का मुँह नहीं देखता है। नहीं......नहीं.......हमारा मतलब यह नहीं है मिर्ज़ा जी ने कहा। हम तो चाहते हैं कि चच्ची आ जाएँ। चचा ने अपने ढीले कुरते की आसतीनें ऊपर चढ़ाईं जो कुरता तहमद के ऊपर लगभग घुटनों तक नीचे आ रहा था। और बोले.......अबे सालो....भाभी को चच्ची बोलते हो। मैं जानता हूँ....मेरे पीछे में कभी नीबू के बहाने.......कभी फ्रिज की ठन्डे पानी के बहाने.......कभी दूध के बहाने आकर आँखें सेंकोगे। अब तक मोहल्ले की बच्चों की गेंदे ही आती थीं मेरे आँगन में। लगता है अब तुम लोगों ने भी क्रिकेट की टीम बना ली है, जिसका निशाना मेरा घर होगा और हर शॉट मेरे आँगन में ही आएगा। सालो मुझसे तो फटती है...पर शादी करा दोगे तो सोचते हो....चच्ची...चच्ची कहकर ख़ूब घुस-घुसकर बैठेंगे चच्ची के पास। जब इण्डिया-पाकिस्तान का मैच होगा तो जाड़ों में लाइट बन्द करके टीवी चलाओगे और एक ही लिहाफ में पूरा मोहल्ला बैठ जाएगा। चाय चचा की पीओ और मज़े चच्ची से लो। अबे सब जानता हूँ तुम बुड्ढों की ख़ुराफात। ख़बू जानता हूँ क्या होता है नाइट मैच देखने के बहाने। पूरे साल इन्तिज़ार करते हो नाइट मैचों का। तुम्हें मतलब नहीं कौन जीते। बस रात के मैच हों और सब एक जगह मैच देखें एक लिहाफ में। और रमज़ानों में मैच पड़ जाएं तो सोने पे सुहागा। सहरी भी चचा की। सब जानता हूँ क्या-क्या करते हो मैच देखने के बहाने। चचा के बेबाक़ बयानों से मानो आफत-सी तारी हो गयी हो। सबके चेहरे उतर गये। आख़िर कौन मनाये चच्चा को शादी के लिये। कुछ पलों के लिये मानो सन्नाटा-सा छा गया। रात के साढ़े नौ हो चले थे। चचा ने चुप्पी तोड़ी। बोले....अमाँ मियाँ....जाओ अपने-अपने घरों। बड़े काज़ी बनते हो....देखो लौंडे आ गये होंगे अपने-अपने कामों से। हिसाब लगाओ...किसको कितनी दिहाड़ी मिली है आज। और जो छोटा लौंडा स्कूल जाता है न......उसको भी भेज देना कल से काम पर। कुछ और जुगाड़ हो जाएगी तुम्हारे हुक्के-पानी की। कम्बख्त चले हैं चचा की शादी कराने। अपना-सा मुँह लिये सब चचा के घऱ से निकले और चचा पीछे से बड़बड़ा रहे थे। कुछ सेकेन्ड के फासले पर एक लम्बी और कड़क आवाज़ ने सन्नाटा तोड़ा......अबे लईक......सुबह फज्र की नमाज़ में उठा दीजो। नमाज़ पढ़ने के लिये नहीं.....तुम लोगों की चाय का भी तो इंतिज़ाम करना होता है रोज़। चचा ने हौले से मुस्कुराकर कहा..........

1 comments:

Comment by huda on April 20, 2010 at 11:03 AM

bahut bahut shukrya sanjay bhai.

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